राजस्थान का पश्चिमी छोर – बाड़मेर और जैसलमेर – कभी “थार की अपनायत” के लिए जाना जाता था। यह वह धरती थी जहाँ जाति, धर्म, भाषा और बोली से ऊपर उठकर लोग एक-दूसरे के सुख-दुख में खड़े रहते थे। पर आज इस शब्द को लेकर बाड़मेर की राजनीति में जो उबाल आया है, वह उसी अपनायत की जड़ों को हिला रहा है।
आज “थार की अपनायत” एक भावना नहीं, बल्कि राजनीति का औजार बन चुकी है। हाल ही में जैसलमेर के बसनपीर मामले को लेकर जिस तरह से राजनीतिक यात्राएं, बयानबाज़ी और समर्थन-विरोध की रेखाएं खींची गईं, वह इस बात का संकेत है कि अब राजनीति, रेत की तरह बिखर रही है और साथ में बिखर रही है वो आत्मीयता, जिसकी मिसाल कभी थार हुआ करता था।
पूर्व मंत्री हरीश चौधरी से लेकर बाड़मेर के सांसद उमेदाराम तक, सबने थार की अपनायत को अपनी-अपनी राजनीति का केंद्र बना लिया है। कोई इसे “स्थानीय बनाम बाहरी” की लड़ाई बता रहा है, तो कोई इसे “धर्म विशेष के वर्चस्व” से जोड़ रहा है। बाड़मेर के बीजेपी नेता स्वरूप सिंह, शिव विधायक रविंद्र भाटी और पोकरण विधायक महंत प्रताप पुरी – सभी अलग-अलग मंचों से एक ही शब्द को घुमा-घुमाकर परोस रहे हैं, लेकिन कोई यह नहीं पूछ रहा कि क्या सच में थार की वो पुरानी अपनायत अब भी जिंदा है?
पहले बाड़मेर में ना जात-पात इतनी हावी थी, ना धर्म को लेकर इतनी नफरत थी। लोग एक-दूसरे के त्योहारों में शामिल होते, शादी-ब्याह, खुशी-ग़म सब मिलकर बाँटते। लेकिन आज “अपनायत” की जगह “आरोप”, “संदेह” और “ध्रुवीकरण” ने ले ली है। किसी धर्म विशेष के लोगों पर “जमीन जिहाद” जैसे आरोप लगाना, पूरे समाज को शक की नज़र से देखना और फिर इन आरोपों की आड़ में राजनीतिक जमीन तैयार करना — क्या यही है अब थार की नई परिभाषा?
कड़वी सच्चाई ये है कि आज नेता अपनायत का मुखौटा लगाकर वोटों की राजनीति खेल रहे हैं। कुछ लोग एक समुदाय को टारगेट करके अपनी राजनीति चमका रहे हैं, तो कुछ उनका विरोध करके अपना चेहरा चमकाने में लगे हैं। दोनों तरफ की राजनीति में एक चीज़ गुम है – जनता का भरोसा, और थार की आत्मा।
थार की अपनायत अब सिर्फ भाषणों में बची है, ज़मीनी हकीकत में नहीं। गाँवों में अब पहले जैसी खुली बाहें नहीं मिलतीं, अब हर धर्म अपनी चारदीवारी में सिमटने लगा है। हर जाति अपने खांचे में खड़ी हो गई है। पहले जहां “पधारो म्हारे देश” एक भावना थी, आज वो भी राजनीतिक स्लोगन बन गया है।
सवाल ये है कि क्या वाकई “थार की अपनायत” वापस आ सकती है?
हाँ, आ सकती है – अगर नेता इसे नारे की तरह नहीं, व्यवहार की तरह अपनाएं। अगर लोग जाति-धर्म से ऊपर उठकर इंसानियत को प्राथमिकता दें। अगर हर कोई अपनी राजनीतिक लड़ाई में थार की मिट्टी की मर्यादा को न भूले।
“थार की अपनायत अब मंच से नहीं, मन से निकलनी होगी।”
“धर्म की दीवारें गिराकर, रिश्तों की डोर फिर से बाँधनी होगी।”
थार की रेत बहुत कुछ सह जाती है, लेकिन जब उस रेत की छाँव में पलने वाली अपनायत खो जाती है, तो सिर्फ रेत नहीं उड़ती – संपूर्ण सभ्यता हिल जाती है। इसीलिए, अब वक्त आ गया है कि बाड़मेर और जैसलमेर के लोग खुद से यह सवाल करें —
“क्या हम वाकई थार की आत्मा को बचाना चाहते हैं, या सिर्फ सत्ता के खेल का हिस्सा बनना चाहते हैं?”
क्योंकि नेता तो बदलते रहेंगे…
पर अगर थार की अपनायत एक बार खो गई, तो वो सदियों तक वापस नहीं आएगी।